मेरा शेरी सफ़र कश्ती मिरे वजूद की जब डूबने लगी दो हाथ और दूर किनारे चले गये ख़ुदा के घर भी मु'आफ़ी नहीं मिलेगी मुझे जो हर नमाज़ से पहले तुम्हारा नाम न लूँ -मंगल नसीम वर्ष 1981 में जब होली के अवसर पर आयोजित एक मुशायरे में प्रसिद्ध शायर जनाब 'मंगल नसीम' के इन शेरों ने तथा उन्हीं दिनों 'मिर्ज़ा ग़ालिब' की हिन्दी अनुवाद एक पुस्तिका के शेरों ने मेरे भावुक मन में ग़ज़ल का बीज रोपित कर दिया। और मैंने ग़ज़ल को अपने जज़्बातो-ख़यालात को व्यक्त करने के लिए चुन लिया। अब सवाल यह था कि इस विधा को कैसे और किससे सीखा जाये। मुझे उस समय मोहतरम जनाब 'मंगल नसीम' इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त जंचे और मेरा यह फ़ैसला आज मेरे लिए ज़िन्दगी का एक अहम फ़ैसला साबित हो रहा है। नसीम साहब से इस विधा को सीखने-समझने का सिलसिला जबसे अबतक जारी है। मैं उनकी शागिर्दी में शेर कहने तो लगा लेकिन अब समस्या थी उनकी अभिव्यक्ति की। जिसमें जनाब दिलशाद शाहजहाँपुरी ने बहुत मदद की। इनके साथ गोष्ठियों में मुझे पढ़वाया व सुना जाने लगा। इसी दौरान मेरा परिचय उस समय भी अच्छा कह रहे स्थानीय शायरों जैसे ज़हीर देहलवी, अंदाज़ देहलवी, चमन देहलवी, दीवान, रौशन लाल 'रौशन', व साजन पेशावरी जैसे शायरों से हुआ। यहाँ मैं विशेष
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